हर सुबह की तरह 21 सितम्बर की सुबह के समाचार पत्र की सुर्खियाँ भी विविधता से भरी थीं। जहाँ एक ओर अफगानिस्तान में शान्ति प्रयासो की दिशा में अग्रणी कार्य करने वाले राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी की बम धमाके में मौत एक आहत करने वाली खबर थी वहीं दूसरी ओर भारतवर्ष का चर्चित स्पैक्ट्रम घोटाला और लखनऊ जिला जेल में एक और विचाराधीन कैदी की मौत मुख्य लीड में थे।
समाचार पत्र का एक कोना हिन्दी साहित्य के प्रतिष्ठित सम्मान भारतीय ज्ञानपीठ के समाचार से भी भरा था जिसमें उत्तर प्रदेश की राजनैतिक राजधानी और सांस्कृतिक राजधानी के लिये खुशबूदार हवा का झोंका भी था। समाचार पत्र की मुख्य लीड पढते हुये जो खिन्न सी मनःस्थिति हुयी थी उसमें एक खुशनुमा हवा के झोंके ने जैसे आकर उत्साह भर दिया था। समाचार था लखनऊ के यशश्वी कथाकार श्रीयुत श्रीलाल जी शुक्ल को 2009 का और इलाहाबाद के श्रद्धेय अमरकांत जी को 2010 का भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया है।
31 दिसम्बर सन् 1925 को लखनऊ जिले के जिस कस्बे अतरौली में श्री लाल शुक्ल जी का जन्म हुआ वह कस्बा भौगोलिक रूप से तो जनपद लखनऊ का हिस्सा था परन्तु वास्तव में जनपद सीतापुर और हरदोई की सांझी संस्कृति के कस्बे के रूप में जाना जाता रहा है। इसी कस्बे में पुश्तैनी तौर पर छोटे खेतिहरों के परिवार में पंडित श्री लाल शुक्ल का जन्म हुआ था। इनके पितामह संस्कृत उर्दू और फारसी के ज्ञानी थे तथ पास के ही विद्यालय में अध्यापकी करते थे। कुछ समय बाद नौकरी से इस्तीफा देकर एक किसान भर रह गये थे। इनके पिता संगीत के शौकीन थे और पितामह द्वारा एकत्र की गयी खेती से जीवन यापन करते हुये 1946 में स्वर्ग सिधार गये । तब तक श्री लाल प्रयाग में बी0 ए0 की शिक्षा ही ग्रहण कर रहे थे। पिता की मृत्यु के उपरांत 1947 में श्रीलाल अपनी आगे की पढाई के लिये लखनऊ विश्वविद्यालय आ गये और 1948 में एम0 ए0 करने के उपरांत यहीं कानून की कक्षा में प्रवेश लिया। इसी दौरान उनका विवाह हो गया और कानून की पढाई आगे जारी न रह सकी। पत्नी के रूप में उन्हे जो सुशील कन्या मिली यह उसकी ही सद्प्रेरणा का प्रभाव था कि वर्ष 1949 में उत्तर प्रदेश की प्रतिष्ठित सिविल सेवा में उनका चयन हो गया । इनके सक्रिय लेखन की शुरूआत के संबंध मे उन्होंने स्वयं अपने एक अंगेजी लेख में इस प्रकार लिखा हैः-
‘‘ ----अगर किशोरावस्था के अनाचार शुमार न किये जायें तो साहित्य में मेरे प्रयोग 26 साल की काफी परिपक्व अवस्था से शुरू हुए।(सिविल सर्वेन्ट की हैसियत से मेरा कैरियर पहले ही शुरू हो गया था) यह सन्1953-54 की बात है। उस समय मै बुन्देलखण्ड के राठ नामक परम अविकसित क्षेत्र में एक डाक बंगले में रहता था और ऐक बैटरी वाल रेडियो , दो राइफले , एक बन्दूक, एक खचडा आस्टिन, मुट्ठी भर किताबें ( ज्यादातर रिप्रिंट सोसाइटी के प्रकाशन) एकाध पत्रिकायें, कभी शिकवा न करने वाली बीबी और दो बहुत छोटे बच्चे, जिन्होंने स्थानीय बोली के सौंदर्य के प्रति उन्मुख होना भर शुरू किया था, यही मेरे सुख के साधन थे।
एक दिन आकाशवाणी के एक नाटक का रोमांटिक धुआंधार ( जो आकाशवाणीके नाटकों आदि में ंहमेशा बलबलाता रहता है) झेलने में अपने को बेकाबू पाकर और लगभग हिंसात्मक विद्रोह करते हुये मैने ‘स्वर्णग्राम और वर्षा ’ नामक लेख लिखा और उसे धर्मवीर भारती को भेज दिया। आकाशवाणी क उस वर्षा सम्बन्धी नाटका पर मेरी यह प्रतिक्रिया रडियो सेट उठाकर पटक देने के मुकाबले कम हानिकर थी । बहरहाल वह लेख छपा ‘निकष’ में, जो तत्कालीन हिंदी लेखन में एक विश्ेाष स्तर की प्रतिभा के साथ उसी स्तर की स्नाबरी से जुडकर निकलने वाला एक नियतकालीन संकलन थां उसके बाद ही भारती से कई जगह से पूछा जाने लगा कि श्रीलाल शुक्ल कौन है?-----’’
हाँलांकि हाल ही में वर्ष 2011 के प्रथम कविताकोश पुरस्कार में सम्मानित होने वाले वरिष्ठ कवि श्रीयुत नरेश जी सक्सेना ने इस पर एतराज जताया कि श्रीयुत शुक्ल जी को यह पुरस्कार देने में इतनी देर क्यों लगायी गयी? उन्होंने श्रीयुत शुक्ल जी से हुयी अपनी पहली मुलाकात को याद करते हुये बताया किः-
श्रीलाल शुक्ल जी से मेरी मुलाकात 45 वर्ष पूर्व हुयी थी जब मै ग्वालियर से यहाँ लखनऊ शहर में जल निगम में सहायक अभियंता के रूप में तैनात होकर आया था। श्री शुक्ल जी का एक कालम ‘बैठे ठाले ’ उस समय साप्ताहिक ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित होता था। नरेश जी की भी कवितायें तत्समय धर्मयुग में छपा करती थीं सो पी0सी0एस0 अधिकारी श्रीलाल जी से मिलने पर नरेश जी बोलेः- ‘मैं आपका पाठक हूँ ।’ इस पर श्रीलाल जी ने बडी सहदृयता से उत्तर दिया कि वे भी श्री नरेश जी के पाठक हैं।
इस प्रकार नरेश सक्सेना जी की घनिष्टता श्रीलाल शुक्ल जी से इतनी बढी कि उनके ‘रागदरबारी’ लिखने के दौरान इसके मुद्रण से पूर्व इसका एक एक अध्याय नरेश जी ने पढा । नरेश जी ने श्रीलाल शुक्ल जी को आश्वस्त किया कि यह उपन्यास अपने आप में बिलकुल ही अलग शैली का है इसे सफलता मिलना अवश्यंभावी है। और ऐसा ही हआ भी राग दरबारी ने अपार सफलता पायी।
विद्यमान परिस्थितियों पर पैनी और व्यंग्यात्मक द्वष्टि श्री लाल शुक्ल की रचनाओं की विशेषता रही है। किसी व्यवस्था मे विद्यमान अडचनंेा पर प्रत्यक्ष चोट करना उनका मंतव्य न रहा हो, ऐसा कहना तब प्रासंगिक नहीं रह जाता जब आप ‘राग दरबारी’ जैसी कालजयी रचना पढते हैं।
राजकीय सेवाओं की बाध्यता और लेखक की कशमकश उनके ही एक लेख की निम्न पंक्तियों से समझी जा सकती हैः-
‘‘ ---‘राग दरबारी’ के प्रकाशन के समय इस बाहरी प्रतिबंध का मुझे गहराई से अनुभव हुआ था और यह केवल उत्तर प्रदेश शासन की सदाशयता थी कि उस समय मेरे लिये नौकरी छोडना लाजमी नहीं हुआ-----’’
1983 में अधिवर्षता पर राजकीय सेवा से सेवानिवृति के उपरांत लखनऊ में रहकर श्री लाल शुक्ल अनवरत साहित्य साधना कर रहे हैं। अपराधिक पृष्ठभूमि पर लिखा उनका उपन्यास ‘सीमाऐं टूटती हैं’ इस धारणा का खंडन करता है कि अपराध कथाऐं साहित्यिक नहीं हो सकती। धर्मवीर भारती के लोकप्रिय उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ का नायक शोध-छात्र चन्दर जहां अपने आदर्शों को जीता हुआ सुधा के प्रति निष्छल प्रेम को अपनी ताकत समझता है और कहता है कि वह कभी गिर नहीं सकता जब तक सुधा उसकी आत्मा में गुंथी हुयी है वहीं ‘सीमाऐं टूटती हैं’ की शोध-छात्रा चांद अपने सहपाठी शोध-छात्र मुकर्जी के प्रेम को सिरे से नकारती हुयी अपने पिता की कैद के जिम्मेदार अधेड विमल के प्रति पारिवारिक विद्रोह की सीमा तक आसक्त होती जाती है। अपराध कथा के प्रभाव वाली यह कथा कृति एक ऐसे जीवन की कथा है जो पाठक को सहज अवरोह के साथ अंततः मानवीय नियति की गहराइयों में उतार देती है। इसी के पात्र विमल के शब्दों में:-
‘‘-- मैं जानता हूं कि रेगिस्तानी हरियाली पर इस तरह खुलकर हमला नहीं करता वह चुपके से अंधेरे में बढता है और जहॉ कुछ दिन पहले फूल खिले थे, वहॉ बालू रह जाती है। उपरी हरियाली का क्या भरोसा? क्या पता कि उसके आस-पास जमीन की अंदरूनी पर्तों में किधर से रेगिस्तान बढता चला आ रहा है---’’
इनकी रचनाओं मंे ‘सूनी घाटी का सूरज’(1957, उपन्यास), ‘अज्ञातवास’(1962,उपन्यास),‘‘राग दरबारी’ (1968,उपन्यास) ‘आदमी का जहर ’(1972 उपन्यास ), सीमाऐ टूटती हैं’ ( 1973, उपन्यास), ‘मकान’( 1976 उपन्यास), पहला पडाव’(1987 उपन्यास), ‘विश्रामपुर का सन्त’(1998, उपन्यास), बब्बर सिंह और उसके साथी’(1999,उपन्यास), ‘राग विराग’(2001,उपन्यास), अंगद के पांव’(1958,व्यंग्य निबंध), ‘यहां से वहां’(1970,व्यंग्य निबंध ), मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें’(1979,व्यंग्य निबंध),‘उमरावनगर में कुछ दिन’(1986,व्यंग्य निबंध), कुछ जमीन में कुछ हवा में(1990,व्यंग्य निबंध),‘आओ बैठ लें कुछ देर’(1995,व्यंग्य निबंध),‘अगली शताब्दी के शहर(1996,व्यंग्य निबंध),‘जहालत के पचास साल’(2003,व्यंग्य निबंध), ‘खबरों की जुगाली(2005,व्यंग्य निबंध), ये घर में नहीं’(1979,लघुकथायें),सुरक्षा तथा अन्य कहानियां’(1991,लघुकथायें),इस उमर में’(2003,लघुकथायें),दस प्रतिनिधि कहानियां’(2003,लघुकथायें), मेरे साक्षातकार’(2002,संस्मरणं), कुछ साहित्य चर्चा भी’(2008,संस्मरणं), भगवती चरण वर्मा(1989,आलोचना), अमृतलाल नागर(1994,आलोचना), अज्ञेयःकुछ रंग कुछ राग(1999,आलोचना), हिन्दी हास्य व्यंग्य संकलन(2000,संपादन),आदि प्रमुख हैं।
इनके उपन्यास रागदरबारी का अनुवाद अंग्रजी सहित 16 भारतीय भाषाओं में हुआ है तथा इस पर ऐक दूरदर्शन धारावाहिक का भी निर्माण हुआ है तथा यह उपन्यास साहित्य अकादमी पुरूस्कार से भी सम्मानित हुआ है। इन्हे मिले पुरूस्कारों की सूची भी लम्बी हैः-1970 में राग दरवारी के लिये साहित्य अकादमी पुरूस्कार पाने के उपरांत 1978 में मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य परिषद द्वारा पुरूस्कृत 1988 में हिन्दी संस्थान का साहित्य भूषण पुरूस्कार, 1991 मेे कुरूक्षेत्र विश्व विद्यालय द्वारा गोयल साहित्यिक पुरूस्कार, 1994 में हिन्दी संस्थान का लोहिया सम्मान पुरूस्कार, 1996 में मध्य प्रदेश सरकार का शरद जोशी सम्मान पुरूस्कार, 1997 में मध्य प्रदेश सरकार का मैथिली शरण गुप्त सम्मान द्वारा पुरूस्कृत, 1999 में विरला फाउन्डेशन का व्यास सम्मान पुरूस्कृत, 2005 में उत्तर प्रदेश सरकार का यश भारती सम्मान, 2008 भारत के राष्ट्रपति द्वारा पद्म भूषण से अलंकृत,
इनके जीवन के 80 वर्ष पूरे होने पर दिसम्बर 2005 में नयी दिल्ली में इनके सम्मान में एक समारोह का आयोजन हुआ जिसमें इनके जीवन पर आधारित पुस्तक ‘‘श्रीलाल शुक्लः जीवन ही जीवन’’ का विमोचन भी हुआ। यह पुस्तक श्रीलाल शुक्ल के बारे में उनके पारिवारिक सदस्यों, साहित्यिक मित्रों आदि द्वारा अपने लेखों से पूर्ण की गयी है जिसमें महान आलेाचक डा0 नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, अशोक बाजपेई, दूधनाथ सिंह, निर्मला जैन, लीलाधर जगुडी, रधुवीर सहाय आदि शामिल हैं।
यह यशस्वी लेखक को पैंतालिसवाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार देने में विलंब भले ही हुआ हो परन्तु ज्ञानपीठ के आकाश में अपने शहर के सितारे को चमकता हुआ देखने पर लखनऊ के साहित्य जगत के सर्वश्री कामतानाथ जी वीरेन्द्र यादव जी, उन्हें यह पुरस्कार मिलने पर इसे श्रीलाल शुक्ल का गौरव नहीं अपितु ज्ञानपीठ का गौरव बताने में भी नहीं हिचके।
जनपद लखनऊ से प्रकाशित होने वाली कथा साहित्य की प्रमुख पत्रिका ‘कथाक्रम’ के संपादक कथाकार श्रीयुत शैलेन्द्र सागर जी का कहना है कि श्रीलाल शुक्ल जी पत्रिका कथाक्रम के संरक्षक भी हैं और संरक्षक का सम्मानित होना निःसंदेह ही उल्लास का विषय है। तथापि उनका मानना है कि ज्ञानपीठ साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार है जो सभी भाषाओं की रचनाओं को ध्यान में रखकर चयनित किया जाता है अतः इस सम्मान का हिंदी के खाते में आना प्रसन्नता का विषय है।
साहित्यकार अखिलेश जी सहित सभी प्रमुख साहित्यिक जगत के पुरोधाओं ने श्रीलाल शुक्ल जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार 2009 मिलने पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुये यह कहा कि आदरणीय शुक्ल जी को यह सम्मान काफी पहले ही मिल जाना चाहिये था।
शारीरिक रूप से अस्वस्थ श्रीलाल शुक्ल जी ने अस्वस्थता के कारण भले ही महामहिम राज्यपाल द्वारा इस अवसर पर प्रेषित शुभकामनाओं को बिस्तर पर लेटे लेटे ही ग्रहण किया परन्तु 86 वर्ष की उम्र में भी इस पुरस्कार के मिलने से अत्यंत उत्साहित हो गये। रागदरबारी जैसी कालजयी रचना रचने वाले इस यश्स्वी लेखक को ढेरों बधाइयों के साथ ईश्वर से यह प्रार्थना है कि वे उन्हे शतायु करे।
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श्री श्री लाल शुक्ल जी पर बहुत ही सुन्दर और सार्थक जानकारी आभार आप का ...कुछ महान विभूतियों की यादें दिल को छू जाती हैं
जवाब देंहटाएंशुक्ल भ्रमर ५
आपको दीपावली की शुभकामनाएं
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