रविवार, 22 मई 2011

यह कैसा घर ?

यह कैसा घर ?
जहॉ बिस्तर पर उगी है नागफनी
आंगन में घूमते हैं संपोले
सोफे पर बिखरी हैं चींटियॉ,
खूंटी पर टंगे हैं रिश्ते
,बालकनी में लटका है भरोसा,
बाथरूम की नाली में बह गयी हैं परंपरायें
हवा में फैला है जहरीला धुंवा
दीमकों ने चाट लिये हैं
सुरक्षा के तने,
संस्कारो को निगलता टेलीविजन,
और पूजाघर में
कुछ इस तरह बंसी बजाते श्री कृश्ण
जैसे रोम के जलने पर
बंसी बजाता रहा था
वहॅा का शासक नीरो
सचमुच कैसा है यह घर ?

गुमशुदा की तलाश

गुमशुदा
मुझे तलाश है
रिश्तों की एक नदी की
जो गुम हो गयी है
कंक्रीट के उस जंगल में
जहॉ स्वार्थ के भेडिये,
कपट के तेंन्दुये,
छल की नागिनों जैसे
सैकडों नरभक्षी किसी भी
रिश्ते को लील जाने को
हरपल आतुर हैं
इस अभ्यारण्य में
मौकापरस्ती के चीते जैसे
जंगली जानवर
हर कंक्रीट की आड में
घात लगाये बैठे हैं
इसलिये मुझे लगता है
कि रिश्तों की वह निरीह नदी
कहीं दुबककर रो रही होगी
याकि निवाला बन गयी होगी
इन कंक्रीट के बासिंदों का,
और अब प्यास बनकर
उतर गयी होगी
उन नरभक्षियां के हलक में ?
जाने क्यों ?
फिर भी मुझे तलाश है
रिश्तों की उस नदी की
जो बीते दिनों में
तब बिछड गयी थी मुझसे
जब मैं शाम के खाने के लिये
रोजगार की लकडियां बीनने
चला आया था
इस कंक्रीट के जंगल में!

नवभारत टाइम्स पर शुरू हुयी कोलाहल से दूर...
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