बुधवार, 27 जुलाई 2011

यादों के झरोखे में कारगिल विजय दिवस पर संस्मरण

26 जुलाई का दिवस स्वतंत्र भारत के लिये एक महत्वपूर्ण दिवस है क्योंकि हम इसे कारगिल विजय दिवस के रूप में मनाते हैं इस दिन से जुड़ी कुछ यादें आपके बीच बांटने का मन हुआ सो विचारों ही विचारों में 1999 के जून माह तक जा पहुँचा । घटना संभवतः माह के आरंभ के किसी कोई दिवस की है । मै अविभाजित उत्तर प्रदेश के गढ़वाल मंडल के जनपद टिहरी गढ़वाल की तहसील नरेन्द्रनगर में बतौर अधीनस्त प्रशासनिक अधिकारी (तहसीलदार ) के रूप में कार्यरत था।
रात का तकरीवन ग्यारह बजा था मैंने रात का खाना खाकर बिस्तर में पहुँचने के बाद रिमोट से खेलते हुये टी वी पर आने वाले चैनलों की थाह लेनी शुरू ही की थी कि बाहर के कमरे में रखा टेलीफोन अचानक घनघनाने लगा। किसी अनमनी काल को भाँपकर मैने पत्नी से फोन उठाने को कहा।

चित्र1 कारगिल शहीदों की स्मृति में लगाया गया विजय अभिलेख
(चित्र विकीपीडिया इनसइक्लोपीडिया के सौजन्य से)

कुछ ही सेकेन्ड के बाद पत्नी कार्डलेस फोन हाथ में लेकर शयन कक्ष में आ पहुँची और हाथ से कार्डलेस फोन का माउथ पीस दबाकर बोली:-
‘‘डी0एम 0 साहब का फोन है।’’

अब सकपकाने की मेरी बारी थी क्योंकि उस समय तक प्रचलित सामान्य शिष्टाचार के तहत सामान्यतः उच्च अधिकारी तब तक अधीनस्तों को असहज समय पर फोन नहीं करते जब तक कि कोई अत्यंत महत्वपूर्ण मसला न हो। सो मैने किसी अनचाही घटना को तत्काल भाँप लिया और शीध्रता से पत्नी के हाथ से फोन लपककर बोलाः- ‘‘ जी सर! प्राणाम आदेश करें।’
जिलाधिकारी महोदय ने बताया कि किसी शहीद हुये सिपाही का शव देहरादून मिलिट्री अकादमी में आया है जिसे लेकर भारतीय सेना के जवान आ रहे हैं। शहीद जिस ग्राम का निवासी था उसके बारे में आवश्यक पडताल करने के बाद जिलाधिकारी महोदय ने बताया कि उसके उत्तराधिकारियों और परिवार के अन्य सदस्यों के बारे में जानकारी जुटा ली जाय क्योंकि उसकी पत्नी अथवा उत्तराधिकारियों को राज्य सरकार द्वारा दी जाने वाली अहैतुक सहायता का चेक भी अगले दिन ही प्राप्त कराने के निर्देश थे। इसके अतिरिक्त लगातार उनके संपर्क में रहने के निर्देश भी दिये। मैने भी तत्काल अधीनस्त अधिकारी और कर्मचारियों को फोन कर स्थिति से अवगत कराया और शीध्रता से अगली कार्यवाही के लिये कहा।
ग्राम का पता लगाये जाने पर ज्ञात हुआ कि तहसील मुख्यालय से लगभग चालीस किलोमीटर तक मोटर मार्ग से चलने के बाद गा्रम तक जाने के लिये लगभग चार किलोमीटर पैदल पहाड़ी रास्ता चलना होगा। मैने क्षे़त्रीय लेखपाल को निर्देशित कर ग्राम के रास्ते की जानकारी ली।

वह रात इसी तरह के आवश्यक निर्देश लेने देने में ही बीती । तड़के पाँच बजे हमारा पूरा प्रशासनिक अमला तहसील मुख्यालय पर एकत्रित हुआ । लगभग एक घंटे के बाद सुबह भारतीय सेना का एक वाहन अमर सिपाही को लेकर वहाँ पहुँचा। सारा प्रशासनिक अमला यहाँ से उनके साथ हो लिया। हमारे साथ के सभी कार्मिक यह जानने को बेताब थे कि आखिर उस अमर शहीद ने देश की सीमा पर कहाँ गोलियाँ खायी।
अमर सिपाही के साथ आये उनकी युनिट के सहयोगी ने सिपाही की बहादुरी के बारे में बताया लेकिन युद्व का ठीक ठीक स्थान वे भी न बता सके (संभव है उन्हे इस बारे में कुछ जानकारी न हो या उन्हें यह न बताने के निर्देश रहे हों)।
सड़क मार्ग से दूरी पूरी करने के दौरान उपस्थित सहकर्मी अपना अपना अनुमान लगाते रहे । कोई फुसफुसाकर कारगिल कहता तो कोई कश्मीर में बम धमाको में शहीद का पता ढूँढने का प्रयास करता रहा। सडक मार्ग खत्म होने के बाद फकोट नामक स्थान से पैदल रास्ता तय करना था जो पहाड़ पर चढ़ाई भरा रास्ता था। जिला मुख्यालय से जिलाधिकारी तथा पुलिस अधीक्षक पहले ही आ चुके थे। जिला कार्यालय से आये नाजिर ने शहीद की पत्नी के नाम आया शासकीय सहायता की पहली किश्त के रूप में लाये पाँच लाख रूपये का चेक वाला लिफाफा मुझे पकड़ाया।
जहाँ तक मुझे याद है तत्समय् यानी 1999 में राज्य सरकार एवं केन्दीय सरकार आदि लगभग बीस लाख रूपये की कुल धनराशि अमर शहीद की विधवा को उपलब्ध करायी जाती थी। (उत्तराखण्ड में सामान्य जीवन निर्वाह के लिये अपने सिपाही पुत्रों के मनीआर्डर पर निर्भर बूढे माता पिता के सम्मुख इस धनराशि से जुड़े अनेक सामाजिक प्रश्न तत्समय उठ खड़े हुये थे जिनके संबंध में विस्तृत चर्चा किसी अन्य आलेख में करूँगा)


चित्र 2 कारगिल युद्ध में निर्णायक भूमिका निभाने वाला वायुयान मिराज
(चित्र विकीपीडिया इनसइक्लोपीडिया के सौजन्य से)



लगभग चार-पाँच किलोमीटर का यह पहाड़ी रास्ता उस अमर शहीद ने अपने साथी सिपाहियों के कन्धे पर तय किया। और अंततः भारत माँ के इस बीर सपूत का ग्राम आया जहाँ क्षेत्रीय राजस्व कर्मियो द्वारा पूर्व ही शहीद के आने की सूचना दी गयी थी। समूचा गाँव अमर शहीद को श्रद्धांजलि देने के लिये उसके आँगन में एकत्रित था। शहीद के परिवार में उसके बूढ़े पिता माँ पत्नी तथा दो बच्चे थे जिनमें से बडे बालक की उम्र लगभग दस साल की होगी।
माँ भारत के इस सपूत को पूरे परिवार ने नम आँखों से बिदाई दी सिवाय उसकी पत्नी के जो इस हादसे की जानकारी पाकर बदहवास सी हो गयी थी और घर के एक कोने में बैठी चुपचाप बैठी आँगन में रखे भारतीय तिरंगे में लिपटे ताबूत और उस पर चढ़े फूलों को एकटक निहार रही थी। ग्रामवासी नम आँख और असीम दुख के बावजूद ‘भारत माता की जै’ का उद्धोष कर रहे थे।
लगभग तीन घंटे तक आवश्यक धार्मिक रस्मो की अदायगी की गयी । इस पूरी प्रक्रिया के दौरान ग्राम के पुराने सेवानिवृत सैनिक और अन्य बुजुर्ग व्यक्ति पूरी तरह सक्रिय रहे। अमर शहीद की पत्नी को उसके पति के ताबूत के पास लाकर उनके अंतिम दर्शन कराये गये परन्तु वह महिला तो जैसे पत्थर जैसी निष्प्राण हो चुकी थी। पति के अंतिम दर्शन के बाद भी उसके गले से आर्तनाद का कोई स्वर न फूट सका । उपस्थित महिलाओं ने रोते बिलखते हुये उसे अपने पति केा आखिरी बार देखकर ,छूकर लिपटकर भरपूर रोने के लिये कई बाद प्रेरित किया परन्तु वह टस से मस न हुयी। और न उसकी आँखों से आँखों से आँसओ की धार बह सकी।
उस महिला को रूलाने के लगभग सभी प्रयास किये जाने के बाद भी जब वह नहीं रोयी तो अंत में सुहाग के चिन्ह चूडियो को तोडने की रस्म के बाद अमर शहीद को ग्राम के पास स्थित शवदाह स्थल पर ले जाने की प्रक्रिया आरंभ हुयी।
जैसे ही अमर शहीद के ताबूत को उठाया जाने लगा तो वह महिला जैसे तंद्रा से उठ बैठी और चीख कर ताबूत पर गिर पडी। बहुत ही दर्दनाक दृष्य था । महिला की यह दशा देखकर उपस्थित लगभग सभी लोगों का गला भर आया। शव को शवदाह स्थल तक ले जाये जाने का कार्यक्रम कुछ समय के विलंबित किया गया।
अंत में अमर शहीद को शवदाह स्थल पर लाया गया । यह स्थल एक छोटी पहाडी नदी के किनारे था जहाँ चट्टानों से निकलकर निर्मल स्वच्छ जल कल कल कर बह रहा था। आसमान में घिरे सफेद बादलों की परछाँई उस जल को दूधिया रंग सा प्रदर्शित कर रही थी। यहाँ शहीद के दस वर्षीय पुत्र द्वारा अपने दादा के साथ चिता को आग देने का कार्यक्रम नियत था।


चित्र3 कारगिल नगर का विहंगम दृष्य
(चित्र विकीपीडिया इनसइक्लोपीडिया के सौजन्य से)



तिरंगे में लिपटे अमर शहीद के शव को चिता पर रखे जाने की प्रक्रिया को सेना के जवानो द्वारा संपादित किया गया । तिरंगे को सम्मान सहित हटाने के बाद सेना और पुलिस के जवानों द्वारा सशस्त्र सलामी दी गयी। अंत में मुखाग्नि देने के लिये उस अमर शहीद के दस वर्षीय बालक को बुलाया गया जो अपने दादाजी के साथ आगे बढ़ा और उसने भारत माँ के इस बीर को भारत की मिट्टी में सदा सदा के लिये समाहित करने के लिये चिता की परिक्रमा की । परिक्रमा के बाद दादा और पोते ने रोते हुये उस अमर शहीद को मुखाग्नि दी।
कुछ समय के बाद उपस्थित समस्त समुदाय चिता से उठती लपटो में केसरिया रंग ढूँढ रही थीं और मै नदी के किनारे उगी हरियाली और नेपथ्य में बह रहे नदी के जल में बादलों के श्वेत प्रतिरूप के मध्य चिता से निकलने वाली केसरिया लपट को मन ही मन गड्डमगड्ड करते हुये अपने हाथ में पकड़े डायरी में रखे उस चेक के बारे में सोच रहा था जो शहीद की पत्नी को तत्कालिक सहायता के रूप में उसी दिन उपलब्ध कराया जाना था।


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9 टिप्‍पणियां:

  1. मन को छूता संस्मरण ....वीर शहीदों को शत शत नमन ...

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  2. शहीदों को नमन

    आपको मेरी हार्दिक शुभकामनायें.
    लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/
    अगर आपको love everbody का यह प्रयास पसंद आया हो, तो कृपया फॉलोअर बन कर हमारा उत्साह अवश्य बढ़ाएँ।

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  3. मन में उतर जाता है ये संस्मरण ... नमन है कारगिल के वीरों को ..

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  4. आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें
    चर्चा मंच

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  5. भूलकर भी हम तिरंगे को नही छोड़ेंगे अब
    है शहीदों की सहादत याद मेरे जेहनमें सब|

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