जीवन यात्रा से बड़ा कोई शिक्षक नहीं है। सो आज का विशिष्ट नमन जीवन यात्रा के उन अनुभवों को जो कड़वे होने के कारण सबसे अच्छे शिक्षक सिद्ध हुए।
जीवन यात्रा के प्रारम्भिक चरणों का ऐसा अनुभव जो याद आ रहा है वो कक्षा सात के आसपास का है। स्थान वही पौड़ी का डी ऐ वी कालेज....
सहपाठियों में कई नाम अच्छे थे लेकिन एक नाम था सलिल.....जी हाँ ..! शायद सलिल ही नाम था उसका...!
मैं नया नया प्रभावित हुआ था उसके लंबे बालों को देखकर..!
कॉपी पर लिखते हुए उसके बाल आँखों पर आ जाते तो वह बड़ी स्टाइल से सिर को झटक कर उन्हें वापिस अपने सिर पर ले आता । उसे न होम वर्क की चिन्ता रहती और न ही कापियों के कवर फटने की..!
वो कक्षा में पीछे की सीट पर बैठता था और मैं अगली पंक्ति में।सलिल जी से मुलाक़ात जा संयोग कुछ इस वजह से बना कि विद्यालय में किन्ही बड़े अफसर का निरीक्षण होना था सो अगली पंक्ति में बैठने वालो को पीछे की पंक्तियों में अलग अलग स्थान पर समायोजित किया गया था ताकि निरीक्षणकर्ता को पिछली पंक्तियों में भी होमवर्क पूरा करने वाले अच्छे छात्रो का आभास मिल सके।
उस निरीक्षण का क़िस्सा फिर कभी सुनाऊंगा लेकिन आज सलिल के साथ बितायी एक दोपहर बताना चाहता हूँ जब उसके आभामंडल से आकर्षित होकर मैं उसके साथ मध्यावकाश में कालेज से काफी दूर जंगल की और निकल गया था।
कंडोलिया से सिविल लाइन्स आने वाले मोटर मार्ग के मध्य में ही एक स्थान पर एक टाकीज था जिसे फट्टा टाकीज कहा जाता था। वह स्थान लगभग निर्जन था। वही पर दो बड़ी चट्टानों के बीच एक ऐसा स्थान था जहाँ कोई हमें देख नहीं सकता था।
उस निर्जन स्थान पर पहुँच कर सलिल ने अपनी जेब से दो अधजले सिगरेट के टोटे निकाले और एक मुझे पकड़ा कर दुसरा स्वयं सुलगा लिया। आसमान की ओर देखकर आँखे बंद करके एक लंबा कश लिया और कुछ देर बाद स्टाइल के साथ धुंवा छोड़कर बोला-
"तुम भी इसी तरह कश लगाओ ...बड़ा मजा आता है..!"
मैंने कई बार प्रयास किया लेकिन उस अधजली सिगरेट को सुलगा नहीं सका तो उसने अपना वाला टुकड़ा मुझे दिया और ओंठो से लगाकर सांस अंदर खींचने को कहा।
मैंने ऐसा ही किया और अगले ही पल खांसी का एक तेज झटका आया और आँखों से पानी निकल आया।
वो बोला-
"अबे ....! इतनी तेज खींचने को थोड़े ही बोला था..! आराम से खींच..स् स् याया ले...!"
लेकिन मेरी हिम्मत न हुई कि मैं एक बार और ऐसा विषाक्त धुंवा अपने फेफड़ों तक खिंच सकूँ।
आज सोचता हूँ कि ईश्वर मेरे प्रति कितना दयालु था कि उसने मेरे लिए सिगरेट के इस पहले अनुभव को इतना कड़वा बना दिया कि आगे कई वर्षो तक मैं दुवारा सिगरेट पीने की सोच भी नही सका।
....यदि ईश्वर दयालु न होता तो वो पहला कश हल्का होता और आनन्ददायी होता तो शायद मै भी इस बुरी आदत का शिकार बन गया होता.....!
शिक्षक दिवस पर उस "बाल गुरु घंटाल" को भी नमन....
जीवन यात्रा के प्रारम्भिक चरणों का ऐसा अनुभव जो याद आ रहा है वो कक्षा सात के आसपास का है। स्थान वही पौड़ी का डी ऐ वी कालेज....
सहपाठियों में कई नाम अच्छे थे लेकिन एक नाम था सलिल.....जी हाँ ..! शायद सलिल ही नाम था उसका...!
मैं नया नया प्रभावित हुआ था उसके लंबे बालों को देखकर..!
कॉपी पर लिखते हुए उसके बाल आँखों पर आ जाते तो वह बड़ी स्टाइल से सिर को झटक कर उन्हें वापिस अपने सिर पर ले आता । उसे न होम वर्क की चिन्ता रहती और न ही कापियों के कवर फटने की..!
वो कक्षा में पीछे की सीट पर बैठता था और मैं अगली पंक्ति में।सलिल जी से मुलाक़ात जा संयोग कुछ इस वजह से बना कि विद्यालय में किन्ही बड़े अफसर का निरीक्षण होना था सो अगली पंक्ति में बैठने वालो को पीछे की पंक्तियों में अलग अलग स्थान पर समायोजित किया गया था ताकि निरीक्षणकर्ता को पिछली पंक्तियों में भी होमवर्क पूरा करने वाले अच्छे छात्रो का आभास मिल सके।
उस निरीक्षण का क़िस्सा फिर कभी सुनाऊंगा लेकिन आज सलिल के साथ बितायी एक दोपहर बताना चाहता हूँ जब उसके आभामंडल से आकर्षित होकर मैं उसके साथ मध्यावकाश में कालेज से काफी दूर जंगल की और निकल गया था।
कंडोलिया से सिविल लाइन्स आने वाले मोटर मार्ग के मध्य में ही एक स्थान पर एक टाकीज था जिसे फट्टा टाकीज कहा जाता था। वह स्थान लगभग निर्जन था। वही पर दो बड़ी चट्टानों के बीच एक ऐसा स्थान था जहाँ कोई हमें देख नहीं सकता था।
उस निर्जन स्थान पर पहुँच कर सलिल ने अपनी जेब से दो अधजले सिगरेट के टोटे निकाले और एक मुझे पकड़ा कर दुसरा स्वयं सुलगा लिया। आसमान की ओर देखकर आँखे बंद करके एक लंबा कश लिया और कुछ देर बाद स्टाइल के साथ धुंवा छोड़कर बोला-
"तुम भी इसी तरह कश लगाओ ...बड़ा मजा आता है..!"
मैंने कई बार प्रयास किया लेकिन उस अधजली सिगरेट को सुलगा नहीं सका तो उसने अपना वाला टुकड़ा मुझे दिया और ओंठो से लगाकर सांस अंदर खींचने को कहा।
मैंने ऐसा ही किया और अगले ही पल खांसी का एक तेज झटका आया और आँखों से पानी निकल आया।
वो बोला-
"अबे ....! इतनी तेज खींचने को थोड़े ही बोला था..! आराम से खींच..स् स् याया ले...!"
लेकिन मेरी हिम्मत न हुई कि मैं एक बार और ऐसा विषाक्त धुंवा अपने फेफड़ों तक खिंच सकूँ।
आज सोचता हूँ कि ईश्वर मेरे प्रति कितना दयालु था कि उसने मेरे लिए सिगरेट के इस पहले अनुभव को इतना कड़वा बना दिया कि आगे कई वर्षो तक मैं दुवारा सिगरेट पीने की सोच भी नही सका।
....यदि ईश्वर दयालु न होता तो वो पहला कश हल्का होता और आनन्ददायी होता तो शायद मै भी इस बुरी आदत का शिकार बन गया होता.....!
शिक्षक दिवस पर उस "बाल गुरु घंटाल" को भी नमन....