सोमवार, 27 जून 2011

पूर्णतः सच्ची घटना पर आधारित एक कहानी


सामाजिक जीवन में संवेदन शीलता का अभाव किस सीमा तक हो गया है इसका अनुभव सामान्यतः हम सभी को करना ही पड़ता है। ऐसे में मानवीय मूल्यों को बनाये रखने का मेरा एक छोटा सा प्रयास किस प्रकार सामाजिक और वैधानिक विवशताओं के चलते दम तोड़ता है इसका स्मरण कराती पूर्णतः सच्ची घटना पर आधारित एक कहानी ई पत्रिका साहित्य शिल्पी के 22 जून अंक में प्रकाशित हुयी है। बचपन में किसी कक्षा में पढ़ी हिन्दी साहित्य की प्रमुख प्रतिनिधि रचना ‘हार की जीत’ के उलट मानवीय संवेदनाओं की तिलांजलि के कारण इसका नाम ‘ष्जीत की हार’ ज्यादा सार्थक जान पड़ता है। यदि आप भी इस कहानी को पूरा पढ़ना चाहते हैं तो कृपया नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें , और हाँ कहानी पढ़ने के बाद अपनी टिप्पणी भेजना न भूलें।
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पराजित [कहानी] -अशोक कुमार शुक्ला |साहित्य शिल्पी: Sahitya Shilpi; Hindi Sahitya ki Dainik patrika#links#links#links#links#links

रविवार, 19 जून 2011

साहित्य शिल्पी’ के ताजा संस्करण में जारी



संभवतः वर्ष 1999 के जून माह का अवसर रहा होगा। मेरी तैनाती ऋषिकेश से 15 किलोमीटर दूर पर्वतीय जनपद टिहरी गढवाल की एकमात्र अर्द्धमैदानी तहसील नरेन्द्रनगर में थी। उत्तराखंड राज्य की घोषणा हो चुकी थी बस उसे अवतरित होना बाकी था। तत्कालीन भारत सरकार के प्रधानमंत्री महोदय का उत्तराखंड आना प्रस्तावित था जिसके लिये आसपास के सभी जनपदों से प्रशासनिक अधिकारियों को शान्ति व्यवस्था हेतु जिम्मेदारी सौंपी गयी थीं । मुझे भी एक ऐसी ही मीटिंग में भाग लेने हेतु देहरादून कलक्ट्रेट पहुंचना था। प्रातः जल्दी उठा और सरकारी कारिन्दों के साथ सरकारी जीप से देहरादून के लिये चल पड़ा। ऋषिकेश से कुछ किलोमीटर आगे बढ़ने पर थोड़ा सा रास्ता जंगल से होकर गुजरता था । इसी जगह पहंँच कर देखा आगे रास्ते पर भारी भीड खडी है। सरकारी जीप को आते देखकर भीड़ इस आशय से किनारे हो गयी कि शायद पुलिस आ गयी है। कैातूहलवश जीप रोकवा कर मैं भी उतर पडा और भीड को लगभग चीरता हुआ आगे बढ आया। देखा सड़क से पचास मीटर दूर जंगल की अंदर एक युवती की अर्द्वनग्न लाश पड़ी थी। आसपास एकत्रित भीड किसी मदारी के सामने खड़े तमाशबीनों की तरह उस लाश को देख रही थी। मैने आगे बढकर देखा युवती लगभग इक्कीस वर्ष की थी उसके शरीर पर छींटदार सूट और गले में रंगीन दुपट्टा था। गौरतलब बात यह थी उसके दाँये हाथ की कलाई पर ड्रिप के माध्मम से दवा, ग्लूकोस आदि चढ़ाये जाने वाली नली लगी थी। पास ही ऐक अधचढ़ी ड्रिप और नली भी पड़ी थी। युवती के शरीर केे निचले हिस्से केा देखने से स्पष्ठ प्रतीत होता था कि वहा गर्भवती थी। यह स्पष्ट था कि अनचाहे गर्भ से निजात पाने के दौरान किसी गंभीर काप्लिकेशन के कारण ही उसेकी मृत्यु हुयी थी और उसका तीमारदार अपनी जान छुड़ाकर उसे इस तरह छोड़कर भाग गया होगा। मैने आगामी कार्यवाही के लिये स्थानीय पुलिस को फोन किया और अपनी जीप से आगामी कार्यक्रम के लिये चल पड़ा।
परन्तु उस युवती की यह दशा देखकर मैं व्यथित हो गया था । वह युवती मेरे मष्तिश्क से जाने का नाम ही नहीं लेती थी ,मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रही थी ,जैसे मेरी जीप में आकर ही बैठ गयी थी । मै सोचने लगा कि आखिर किसी की प्रेमिका रही होगी वह ? प्रेम के वशीभूत अपने प्रेमी के आलिंगन में बंधने को कैसी आतुर रही होगी वह ? और उस सम्मोहक आलिंगन की पािणति इस रूप में होगी, क्या कभी उसने सोचा होगा? नही ंना! बस इसी पृष्ठभूमि में उस नवयौवना को श्रंद्धांजलि स्वरूप कुछ पंक्तियाँ लिखीं थी जो समर्पित थीं उस प्रारंभिक निश्छल आलिंगन को, और उस इक्कीसवें बसंत को जो चाहकर भी अगली बहार या पतझड़ नहीं देख सकी थी।
वह श्रंद्धांजलि आज ‘साहित्य शिल्पी’ के ताजा संस्करण में कविता ‘इक्कीसवाँ बसंत’ के नाम से जारी हुयी है।


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इक्कीसवॉ बसन्त [कविता]- अशोक कुमार शुक्ला |साहित्य शिल्पी: Sahitya Shilpi; Hindi Sahitya ki Dainik patrika#links#links#links#links#links

गुरुवार, 16 जून 2011

एक अधूरी पेंटिंग [कहानी]


वह घर मुझे शमशान घाट की ऐसी चिता जैसा जान पड़ा जिसमें एक अरसे से कृति का शरीर लगातार जलता रहा हो और आज जिसकी कपाल क्रिया पूर्ण हुयी हो। मैने शमशान घाट पर चिता में जल चुके शरीर के अवशेष फूलों की मानिंद उस कमरे से वह आधी अधूरी पेंटिंग, खाली कैनवास और चित्रकला की किताबें और रंग तथा ब्रशों से भरा पैकेट चुनकर उठाया और उसे अपनी कार में डालकर एक बार भारी मन से उस घर की ओर देखा जो उस शमशान के चांडालों से घिरा जान पड़ता था।

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[कहानी] - अशोक कुमार शुक्ला |साहित्य शिल्पी:

बुधवार, 15 जून 2011

सरकारी खरीद

वर्ष पूरा हुआ

वार्षिक लेखा जोखा नापने को

अधिकारियों के घरों पर

तराजू लगाये गये हैं

ठीक सरकारी गल्ला खरीद केन्द्र जैसे

किसी निरीह किसान की तरह

मैं भी कई दिनों से खडा हूँ

अपना गल्ला लेकर

लेकिन हर रोज कोई कोई

बिचैलिया भरमा देता है मुझे

या कोई पल्लेदार झटक देता है मेरा हाथ

यह कहते हुए कि

तुम्हारे अनाज में कंकडों की मिलावट है

यह ऐसे नहीं खरीदा जा सकेगा

और मैं किसी पिल्ले की तरह

दुम हिलाता हुआ

बार बार चला जाता हूँ उनके सामने

और सोचता हूँ

सरकारी कामों को निबटाना

उतना जरूरी नहीं है

जितना जरूरी है

तलवे चाटने में महारत हासिल करना

सच में !

कैसी विडंबना है कि

उन्हें मूल्यांकन करना है

जिन्हें व्यवस्था ने स्वयं

वर्षो से ढोया है

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