मंगलवार, 23 अगस्त 2011

तुम तो चली गयी , अब क्या करूँ उन शब्दों का जो सिर्फ तुम्हारे लिये ही लिखे थे?


भारतीय सिनेजगत में चवन्नी उछाल कर दिल माँगने का सिलसिला बहुत पुराना रहा है परन्तु भारत सरकार ने बीते एक माह से चवन्नी का चलन ही बंद कर दिया है। ऐसी हालत में अब भारतीय टकसाल में ढलने वाली सबसे छोटी मुद्रा अठन्नी होगी। अब चवन्नी उछाल कर दिल माँगने वाला सिने जगत सीधे सीधे चेक माँगता हुआ नजर आ रहा है (याद करें अदनान सामी) परन्तु असली लाचारी उन ऐतिहासिक दस्तावेजों की है जो सिर्फ चवन्नी के बारे में ही लिखे गये थे। इस संबंध में साहित्यिक और सिने जगत ने तो अपने अपने तरीके से इसका हल निकाल लिया है परन्तु विधिक प्राविधानो पर नजर दौडाने पर हाल ही में एक रोचक तथ्य संज्ञानित हुआ है।
किसी कार्य से भारतीय स्टाम्प अधिनियम 1899(यथासंशोधित) के प्राविधानों को पढने की आवश्यकता उत्पन्न हुयी। इस केन्द्रीय अधिनियम की एक धारा ने मेरा ध्यान आकर्षित किया जो इस प्रकार थीः-

घारा 78ः- अधिनियम का अनुवाद तथा सस्ते दाम पर बिक्री- प्रत्येक राज्य सरकार अपने द्वारा शासित क्षेत्रार्न्तगत अधिकतम पच्चीस नये पैसे (शब्द ‘पच्चीस नये पैसे’ 1958 में प्रतिस्थापित) प्रति की दर पर प्रभुख भाषा में इस अधिनियम के अनुवाद की बिक्री के लिये प्राविधान बनायेगी।
(मूल धारा अंग्रेजी मे है यहाँ उसका अनुवाद प्रस्तुत है)

यह पढकर मुझे यह सुखद आश्चर्य हुआ कि आज से 112 वर्ष पूर्व जब अंग्रेजी शासन द्वारा भारतीय स्टाम्प अधिनियम बनाया गया तब भी जन साधारण को सूचना उपलब्ध कराने के विन्दु पर कितनी सजगता थी। बहरहाल आज तो इसके लिये पृथक से सूचना अधिकार अधिनियम 2005 ही लागू है।

कालान्तर में यही स्टाम्प अधिनियम भारतवर्ष के सभी राज्यों में आवश्यकतानुसार संशोधनो के साथ अंगीकार किया गया। समूचे देश में लागू इस केन्द्रीय अधिनियम में स्टाम्प आरोपण से संबंधित सूचना आम जनता को अधिकतम चार आने (चवन्नी ) के नगण्य दामो पर उपलब्ध कराने हेतु राज्य सरकारों को बाध्य किया गया था।
अब जब कि भारत सरकार द्वारा चवन्नी का चलन ही बंद कर दिया गया है तो मेरी रोचक चिंता इस अधिनियम की धारा 78 के क्रियान्वयन हेतु राज्य सरकारों द्वारा किये गये (अथवा किये जा रहे) संशोधनो के संबंध में थी कि जब चवन्नी का चलन ही बंद तो अधिनियम का अनुवाद अधिकतम चार आने में विक्रीत करने का औचित्य क्या है?
मैने आगे बढकर इस धारा के क्रियान्नवयन हेतु राज्य सरकारों द्वारा किये गये संशोधनों पर जब द्वष्टि डाली तो यह ज्ञात हुआ कि आन्ध्र प्रदेश राज्य ने 1976 में इस धारा को अपने राज्य में इस संशोधन के साथ अपनाया कि धनराशि की गणना दस पैसे के गुणक में की जायगी तथा पांच या उससे अधिक पैसों को न्यूनतम दस पैसों में पूर्णाकित किया जायेगा।
इसी प्रकार तमिलनाडु राज्य में धनराशि की गणना हेतु पाँच पैसे के गुणक का संशोधन 1967 में अंगीकार किया गया।
मध्य प्रदेश राज्य में लागू मध्य प्रदेश कराधान (विस्तारित) अधिनियम 1957 के प्राविधान लागू होने के कारण इसमें एक अतिरिक्त धारा 78-क जोडते हुये उसे विनियमित किया गया।
उत्तर प्रदेश राज्य में इस धारा को लागू किये जाने के संबंध मे पड़ताल किये जाने पर यह रोचक तथ्य सामने आया कि 1998 में पारित अधिनियम संख्या 22 के द्वारा प्रदेश के लिये धारा 78 को ही निकाल दिया गया था।
अब इसे उत्तर प्रदेश की दूरदर्शिता कहेंगे कि उसने वर्ष 2011 में चवन्नी के चलन में बंद होने की आहट को भाँप कर इस अधिनियम की चवन्नी वाली धारा को अपने प्रदेश में लागू नहीं होने दिया या आम जनता को (सूचना का अधिकार लागू होने से पूर्व) सहजता से उपलब्ध हो सकने वाली स्टाम्प आरोपण संबंधी सूचना के प्रतिकूल व्यवहार करने वाली कोई चालाकी?
आपके विवेक के अनुसार यह तथ्य आपके सम्मुख विचारार्थ प्रस्तुत है।
इसके अलावा उत्तर प्रदेश में भूराजस्व की वसूली हेतु प्रभावी नियम 255 में भी चलन से बाहर हुयी चवन्नी की उपयोगिता इस प्रकार वर्णित हैः-
धारा 282 के अधीन मालगुजारी की वसूली हेतु कुर्की पारण (ज0वि0 आकार पत्र 71) के लिये 75 पैसे शुल्क लिया जायेगा। अब जब 25 पैसे चलन में ही नहीं रहे तो शुल्क 50 पैसे के गुणक में होना चाहिये ना।
इस पर भी आपकी चर्चा आमंत्रित है।

6 टिप्‍पणियां:

  1. हमारे यहाँ कुछ मामलों में न्याय शुल्क पच्चीस और पचास पैसा है कुछ मामलों में सवा रुपया और ढाई रुपया। एक रुपए से कम का कोर्टफीस स्टाम्प बरसों पहले से छपना बंद हो गया है। पच्चीस और पचास के स्थान पर एक रुपए का, सवा के स्थान पर दो रुपए का और ढाई रुपए के स्थान पर तीन रुपए का कोर्ट फीस लगाना पड़ता है। कोई यह एतराज भी नहीं उठाता कि फीस की अनुसूची परिवर्तित की जानी चाहिए।

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  2. योग्य उत्तराधिकारी की तलाश .
    "एकदा "(नभाटा ,२४ अगस्त )में एक बोध कथा प्रकाशित हुई है "योग्य उत्तराधिकारी "ज़िक्र है राजा प्रसेनजित ने एक मर्तबा अपने पुत्रों की आज़माइश करने के लिए उन्हें खजाने से अपनी कोई भी एक मनपसंद चीज़ चुनने के लिए कहा .सभी पुत्रों ने अपनी पसंद की एक एक चीज़ चुन ली .लेकिन इनमे से एक राजकुमार ने महल के चबूतरे पर रखी "तुरही "अपने तैं चुनी .राजा प्रसेनजित ने आश्चर्य मिश्रित भाव से पूछा इस "रणभेरी "को तुमने वरीयता क्यों दी जबकी राजमहल में एक से बढ़के एक साज़ थे ."महाराज यह तुरही मुझे प्रजा से जोड़े रहेगी .हमारे बीच एक संवाद ,एक कनेक्टिविटी का सशक्त ज़रिया बनेगी .मेरे लिए सभी प्रजाजन यकसां प्रिय हैं .मैं चाहता हूँ मैं भी उनका चहेता बन रहूँ .परस्पर हम सुख दुःख बाँटें .मैं प्रजा के और प्रजा मेरे सुख दुःख में शरीक हो .राजा ने इसी राजकुमार को अपना उत्तराधिकारी बना दिया ।
    स्वतंत्र भारत ऐसे ही सुयोग्य उत्तराधिकारी की तलाश में भटक रहा है ।
    यहाँ कथित उत्तराधिकारी के ऊपर एक अमूर्त सत्ता है ,सुपर -पावर है जिसे "हाईकमान "कहतें हैं ।
    तुरही जिसके पास है वह राम लीला मैदान में आमरण अनशन पर बैठा हुआ है ।
    प्रधानमन्त्री नाम का निरीह प्राणि सात सालों से बराबर छला जा रहा है .बात भी करता है तो ऐसा लगता है माफ़ी मांग रहा है .सारी सत्ता लोक तंत्र की इस अलोकतांत्रिक हाई कमान के पास है .प्रधान मंत्री दिखावे की तीहल से ज्यादा नहीं हैं .न बेचारे के कोई अनुगामी हैं न महत्वकांक्षा ,न राजनीतिक वजन .
    यहाँ बारहा ऐसा ही हुआ है ,जिसने भी सुयोग्य राजकुमार बनने की कोशिश की उसके पैर के नीचे की लाल जाज़म खींच ली गई .बेचारे लाल बहादुर शाश्त्री तो इसी गम में चल भी बसे. ये ही वो शक्श थे जिन्होनें पाकिस्तान के दांत १९६५ में तोड़ दिए थे ।
    ब्लडी हाई -कमान ने शाश्त्री जी को ही उस मुल्क का मेक्सिलोफेशियल सर्जन बनने के लिए विवश किया .कभी सिंडिकेट कभी इन्दिकेट .इंदिरा जी ने खुला खेल फरुख्खाबादी खेला . जाज़म विश्वनाथ प्रताप सिंह जी के नीछे से भी खींचा गया .महज़ हाईकमान रूपा पात्र -पात्राएं,पार्टियां बदलतीं रहीं .अटल जी अपने हुनर से सबको साथ लेने की प्रवृत्ति से पक्ष -विपक्ष को यकसां ,बचे रहे .चन्द्र शेखर जी का भी यही हश्र हुआ .आज खेला इटली से चल रहा है .बड़ा भारी रिमोट है .सात समुन्दर पार से भी असर बनाए हुए है .सुयोग्य उत्तराधिकार को नचाये हुए है .

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  3. बृहस्पतिवार, २५ अगस्त २०११
    संसद की प्रासंगिकता क्या है ?
    अन्ना जी का जीवन देश की नैतिक शक्ति का जीवन है जिसे हर हाल बचाना ज़रूरी है .सरकार का क्या है एक जायेगी दूसरी आ जायेगी लेकिन दूसरे "अन्ना जी कहाँ से लाइयेगा "?
    और फिर ऐसी संसद की प्रासंगिकता ही क्या है जिसने गत ६४ सालों में एक "प्रति -समाज" की स्थापना की है समाज को खंड खंड विखंडित करके ,टुकडा टुकडा तोड़कर ।जिसमें औरत की अस्मत के लूटेरे हैं ,समाज को बाँट कर लड़ाने वाले धूर्त हैं .
    मनमोहन जी गोल मोल भाषा न बोलें?कौन सी "स्टेंडिंग कमेटी "की बात कर रहें हैं ,जहां महोदय कथित सशक्त जन लोक पाल बिल के साथ ,एक प्रति -जन -पाल बिल भी भिजवाना चाहतें है ?संसद क्या" सिटिंग कमेटी" है जिसके ऊपर एक स्टेंडिंग कमेटी बैठी है .अ-संवैधानिक "नेशनल एडवाइज़री कमेटी"विराजमान है जहां जाकर जी हुजूरी करतें हैं .नहीं चाहिए हमें ऐसी संसद जहां पहले भी डाकू चुनके आते थे ,आज भी पैसा बंटवा कर सांसद खरीदार आतें हैं .डाकू विराजमान हैं .चारा -किंग हैं .अखाड़े बाज़ और अपहरण माफिया किंग्स हैं ।
    आप लोग चुनकर आयें हैं ?वोटोक्रेसी को आप लोग प्रजा तंत्र कहतें हैं ?
    क्या करेंगें हम ऐसे "मौसेरे भाइयों की नैतिक शक्ति विहीन संसद का"?

    समय सीमा तय करें मनमोहन ,सीधी बात करें ,गोल -गोल वृत्त में देश की मेधा और आम जन को न घुमाएं नचायें ।
    "अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल ".बारी अब तेरी है .

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  4. भाई साहब !इस व्यवस्था में आम आदमी की ही चीज़ गायब होंगी .हम तो शुरु से कह रहें हैं ,आंकडा -खोर ,आर्थिक वृद्धि का ढोल पीटती इस सरकार का हाथ सैदेव ही आम आदमी की जेब में रहा है .और कुछ न मिला तो "चवन्नी ही सही ".

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  5. सार्थक जानकारीपरक ,पोस्ट आभार

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  6. अशोक जी, बाल सहित्‍य गोष्‍ठी में पधार कर उसे सार्थकता प्रदान करने के लिए आभार।

    चवन्‍नी से सम्‍बंधित जानकारी के लिए आभार।

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    कसौटी पर शिखा वार्ष्‍णेय..
    फेसबुक पर वक्‍त की बर्बादी से बचने का तरीका।

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