गुरुवार, 4 अगस्त 2011

जबरिया मारे रोने न दे

अचानक यहाँ लखनऊ में एक ऐसी खबर आयी है जो भारतीय नारी के लिये अच्छी है सो आज की पोस्ट में उसे दे रहा हूँ । हाँलांकि इसमें पुरूषों के प्रति कुछ ज्यादती नजर आती है लेकिन यह चर्चा आप सब सुधी पाठक जनों पर छोडते हुये खबर का आनंद लें।


जी हाँ ! लखनऊ के उच्च न्यायालय में एक डाक्टर दंपत्ति के तलाक संबंधी मुकदमे में न्यायालय ने कुछ ऐसी ही व्यवस्था दी है। इस निर्णय ने जहाँ एक ओर विवाहित हिन्दू महिला के अधिकारों को मजबूती प्राप्त होने के साथ साथ विवाह विच्छेद के आधारों को नये सिरे से परिभाषित करने जैसा कार्य किया है वहीं दूसरी ओर पत्नियों के अत्याचार से पीड़ित पतियों की दशा ‘‘जबरिया मारे रोने न दे ’’जैसी भी कर दी है।


यह मामला एक चिकित्सक दंपत्ति का है। सर्जन डॉ0 अजय लावनिया और उनकी चिकित्सक पत्नी तब वैवाहिक बंधन में बंधे थे जब अजय अपनी एम0 एस0 की पढा़ई कर रहे थे और उनकी पत्नी मेरठ में सीनियर रेजिडेन्ट थीं। शादी के बाद पति डा0 अजय ने एम0एस0 पूरा कर नेपाल के भैरवनाथ मेडिकल कालेज में काम करना शुरू किया इसी दौरान दोनो के बीच छोटे छोटे झगडे होने प्रारंभ हुये । अंततः झगडे इस सीमा तक बढे कि डाक्टर पत्नी मेरठ शहर वापिस लौट आयीं और पुनः रेजिडेन्ट डाक्टर के रूप में काम करने लगीं।
इस दौरान आपस में सुलह समझौते की कोशिशें होती रहीं और एक बार फिर सन् 2002 में दोनो ने साथ रहने का निर्णय लिया। इस बार फिर पत्नी अपनी नौकरी छोडकर पति के पास मनिपाल चली आयी।
इन दंपत्ति के मध्य यहाँ भी झगडे कम न हुये । यहाँ तक कि न्यायालय में दाखिल एक शपथपत्र में डा0 अजय ने यह आरोप लगाया है कि 2007 में उसकी डाक्टर पत्नी ने उस पर हमला किया दाँतो से उसके शरीर में जगह जगह पर काट कर घाव कर डाले । डाक्टर अजय ने अपना मेेडिकल कराकर पत्नी के खिलाफ मुकदमा लिखवा दिया ।


उधर पत्नी ने भी पति के खिलाफ दहेज उत्पीडन का मुकदमा दर्ज करा दिया जिसमें डा0 अजय तथा उसके परिजनो को सजा हुयी ,बाद में अपीलीय अदालत से उनकी जमानत होने के बाद ही वह जमानत पर जेल के बाहर आ सके ।
कुछ दिन बाद पत्नी ने अपने पति के साथ रहने की इच्छा जाहिर की परन्तु डा0 अजय इसके लिये तैयार नहीं हुये।
इस पर डाक्टर पत्नी ने पारिवारिक न्यायलय की शरण ली और हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा नौ के तहत दाम्पत्य संबंधो की पुर्नस्थापना का वाद दायर कर दिया। ठीक इसके विपरीत डाक्टर अजय ने न्यायालय में तलाक का मुकदमा दायर कर दिया।
पारिवारिक न्यायालय ने डाक्टर पत्नी का मुकदमा उसके हक में निर्णित किया तथा डा0 अजय द्धारा दायर विवाह विच्छेद का दावा खारिज कर दिया ।
विवाह विच्छेद के दावे को निरस्त करने संबंधी निचली अदालत के आदेश को डा0 अजय द्धारा मा0 उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी। माननीय उच्च न्यायालय ने तल्ख टिप्पणी करते हुये कहा कि शादी की निरंतरता नियम है और तलाक एक अपवाद निचली अदालतों को जागरूक रहना चाहिये कि तलाक व गुजारा संबंधी कानूनी प्राविधानों का पत्नी द्धारा दुरूपयोग न किया जाय और नही इसे एक बदला लेने के अस्त्र के रूप में उपयोग किया जाय । न्यायालय ने कह कि वैवाहिक जीवन पूरी शिद्दत के साथ पूर्णता को प्राप्त होना चाहिये। यह भी कहा कि ‘‘पसंद नापसंदगी को तलाक के मुकदमों का आधार नहीं बनाया जा सकता’’ तलाक का आधार क्रूरता हो सकता है परन्तु किसी को पसंद न करना क्रूरता की श्रेणी में नहीं आ सकता अतः निचली अदालत के आदेश के विरूद्व दायर की गयी अपील निरस्त की जाती है।
इस आदेश के निहतार्थ तो यही हुये कि आप चाहे पत्नी को पसंद करे या न करें आपको वैवाहिक जीवन उसी के साथ निभाना है। वैसे काफी हद तक यह फैसला सदियों से हिन्दू धर्मशास्त्रों में कहे गये सूक्ति वाक्य ‘‘विवाह संस्कार है जिसे जन्म जन्मांतर तक निभाना होता है’’ के पक्ष में खड़े हुये प्रतीत होते हैं । अब समस्या तो उन कुछ छंटे हुये बेचारों की है जो अपनी पत्नी के ज्यादतियों का शिकार होने के बावजूद अब उससे छुटकारा पाने के लिये तलाक नहीं ले सकेगा। यह तो वही बात हुयी ना ‘जबरिया मारे रोने न दे’।

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जबरिया मारे रोने न दे !!

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